Sunday, 31 January 2016

पृथ्वी के बाहर जीवन की वैज्ञानिक खोज : परग्रही जीवन श्रंखला भाग २

अंतरिक्ष मे जीवन की खोज करने वाले विज्ञानीयो के अनुसार अंतरिक्ष मे जीवन के बारे मे कुछ भी निश्चित कह पाना कठीन है। हम ज्ञात भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान के नियमो के अनुसार कुछ अनुमान ही लगा सकते है।

अंतरिक्ष मे जीवन की खोज से पहले यह सुनिश्चित कर लेना आवश्यक है कि किसी ग्रह पर जीवन के लिये मूलभूत आवश्यकता क्या है? 
पृथ्वी पर जीवन और जीवन के विकास के अध्यन तथा ज्ञात भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान के नियमो के अनुसार अंतरिक्ष मे जीवन के लिये जो आवश्यक है उनमे से प्रमुख है:
● द्रव जल,
● कार्बन और
● DNA जैसे स्वयं की प्रतिकृति बनाने वाले अणु।

वैज्ञानिको का मानना है कि जीवन के लिये द्रव जल की उपस्थिती अनिवार्य है। अंतरिक्ष मे जीवन की खोज के लिये पहले द्रव जल को खोजना होगा। द्रव जल अन्य द्रवो की तुलना मे सार्वभौमिक विलायक(Universal Solvent) है, जिसमे अनेको प्रकार के रसायन घूल जाते है। द्रव जल जटिल अणुओ के निर्माण के लिये आदर्श है। द्रव जल के अणु सामान्य है और ब्रम्हाण्ड मे हर जगह पाये जाते है जबकि बाकि विलायक दुर्लभ है।

हम जानते है कि जीवन के लिये कार्बन आवश्यक है क्योंकि इसकी संयोजकता(Valencies) चार है और यह चार अन्य अणुओ के साथ बंध कर असाधारण रूप से जटिल अणु बना सकता है। विशेषतः कार्बण अणु की श्रंखला बनाना आसान है जोकि हायड़्रोकार्बन और कार्बनीक रसायन का आधार है। चार संयोजकता वाले अन्य तत्व कार्बन के जैसे जटिक अणु नही बना पाते है।
स्टेनली मीलर और हैराल्ड उरे द्वारा किया गया प्रयोग

१९५३ मे स्टेनली मीलर और हैराल्ड उरे द्वारा किये गये प्रयोग ने यह सिद्ध कीया था कि सहज जीवन निर्माण यह कार्बनीक रसायन का प्राकृतिक उत्पाद है। उन्होने अमोनिया, मीथेन और कुछ अन्य रसायन (जो पृथ्वी की प्रारंभिक अवस्था मे थे) के घोल को एक फ्लास्क मे लीया और उसमे से विद्युतधारा प्रवाहित की और इंतजार करते रहे। एक सप्ताह मे ही उन्होने फ्लास्क मे अमीनो अम्ल (Amino Acid) को निर्मीत होते देखा। विद्युत धारा अमोनिया और मीथेन के कार्बन बंधनो को तोड़कर उन्हे अमीनो अम्ल मे बदलने मे सक्षम थी। अमीनो अम्ल प्रोटीन का प्राथमिक रूप है। इसके बाद मे अमीनो अम्ल को उल्काओ मे और गहन अंतरिक्ष के गैस के बादलो मे भी पाया गया है।

जीवन का मूलभूत आधार है स्वयं की प्रतिकृति बनाने वाले अणु जिन्हे हम डी एन ए कहते है। रसायन विज्ञान मे इस तरह के स्वयं की प्रतिकृति बनाने वाले अणु दूर्लभ है। पृथ्वी पर पहले डीएनए के अणु के निर्माण के लिये करोड़ो वर्ष लगे। संभवतः ये अणु सागर की गहराईयो मे बने। यदि कोई मीलर-उरे के प्रयोग को करोड़ो वर्ष तक सागर मे जारी रखे तो डीएनए के अणु सहज रूप से बनने लगेंगे। प्रथम डीएनए के अणु का निर्माण शायद सागर की गहराईयो मे ज्वालामुखी के मुहानो हुआ होगा क्योंकि ज्वालामुखी के मुहानो की गतिविधीया इन अणुओ के निर्माण के लिये आवश्यक उर्जा देने मे सक्षम है। यह प्रकाश संश्लेषण से के आने से पहले की गतिविधियां है। यह ज्ञात नही है कि डीएनए के अणुओ के अलावा अन्य कार्बन के जटिल अणु स्वयं की प्रतिकृती बना सकते है या नही लेकिन स्वयं की प्रतिकृती बना लेने वाले अणु डीएनए के जैसे ही होंगे।

जीवन के लिये संभवतः द्रव जल, हायड्रोकार्बन रसायन और डीएनए जैसे स्वयं की प्रतिकृती बनाने वाले अणु चाहीये। इन शर्तो का पालन करते हुये ब्रम्हाण्ड मे जीवन की संभावना की मोटे तौर पर गणना की जा सकती है। १९६१ मे कार्नेल विश्वविद्यालय के खगोलशास्त्री फ्रेंक ड्रेक ने सर्वप्रथम ऐसी ही एक गणना की थी। मंदाकिनी आकाशगंगा मे १०० बीलीयन तारे है, इसमे से आप सूर्य के जैसे तारो का अनुमान लगा सकते है, उसके बाद उनमे से ग्रहो वाले तारो का अनुमान लगा सकते है।
ड्रेक का समिकरण बहुत सारे कारको को ध्यान मे रखते हुये आकाशगंगा मे जीवन की गणना करता है। इन कारको मे प्रमूख है
1. आकाशगंगा मे तारो की जन्मदर
2. ग्रहो वाले तारो का अंश
3. तारो पर जीवन की संभावना वाले ग्रहो की संख्या
4. जीवन उत्पन्न करने वाले वास्तविक ग्रहो का अंश
5. बुद्धीमान जीवन उत्पन्न करने वाले ग्रहो का अंश
6. बुद्धिमान सभ्यता द्वारा सम्पर्क रखने की इच्छा और निपुणता का अंश
7. सभ्यता का अपेक्षित जीवनकाल

उचित आकलन लगाने के बाद और इन सभी प्रायिकताओ का गुणन करने के बाद पता चलता है कि अपनी आकाशगंगा मे ही १०० से १०००० ग्रह ऐसे होगें जिनपर बुद्धीमान जीवन की संभावना है। यदि यह बुद्धीमान जीवन आकाशगंगा मे समान रूप मे वितरित है तब हमारे कुछ सौ प्रकाश वर्ष मे ही बुद्धीमान जीवन वाला ग्रह होना चाहीये। १९७४ मे कार्ल सागन के अनुसार हमारी आकाश गंगा मे ही १० लाख सभ्यताये होना चाहीये। (ड्रेक के समीकरण का उल्लेख कार्ल सागन ने इतनी बार किया है कि इस समीकरण को सागन का समिकरण भी कहा जाता है।)

इन गणनाओ ने सौर मंडल से बाहर जीवन की संभावनाओ की खोज के लिये नये औचित्य दिये है। पृथ्वी बाह्य जीवन पाने ही इन संभावनाओ के कारण विज्ञानीयो अब गंभीर रूप से इन ग्रहो से उत्सर्जीत रेडीयो संकेतो पर ध्यान देना शुरू किया है। आखीर ये बुद्धीमान सभ्यताये भी हमारी तरह टीवी देखती होंगी ही या रेडीयो सुनती ही होंगी !

Source:-https://vigyanvishwa.wordpress.com/2011/01/24/alienlifesearch/

Saturday, 30 January 2016

उड़नतश्तरीयां : परग्रही जीवन श्रंखला भाग 1

कुछ लोगो का विश्वास है कि परग्रही प्राणी उड़नतश्तरीयो से पृथ्वी की यात्रा कर चूके है। वैज्ञानिक सामान्यतः उड़नतश्तरी के समाचारो पर विश्वास नही करते है और तारो के मध्य की विशाल दूरी के कारण इसकी संभावना को रद्द कर देते है। वैज्ञानिको इस ठंडी प्रतिक्रिया के बावजूद उड़नतश्तरी दिखने के समाचार कम नही हुये है।
१९५२ मे न्युजर्सी स रा अमरीका मे दिखायी दी कथित उड़नतश्तरी का चित्र

उड़नतश्तरीयो के देखे जाने के दावे लिखित इतिहास की शुरुवात तक जाते है। बाईबल मे ईश्वर के दूत इजेकील ने रहस्यमय ढंग से आकाश मे ’चक्र के अंदर चक्र’ का उल्लेख किया है जिसे कुछ लोग उड़नतश्तरी मानते है। १४५० ईसा पूर्व मिश्र के फराओ टूटमोस तृतिय के काल मे मिश्री(इजिप्त) इतिहासकारो ने आकाश मे ५ मीटर आकार के ’आग के वृत’ का उल्लेख किया है जो सूर्य से ज्यादा चमकदार थे और काफी दिनो तक आकाश मे दिखायी देते रहे तथा अंत मे आकाश मे चले गये। ईसापूर्व ९१ मे रोमन लेखक जूलियस आब्सक्युन्स ने एक ग्लोब के जैसे गोलाकार पिंड के बारे मे लिखा है आकाशमार्ग से गया था। १२३४ मे जनरल योरीतसुमे और उसकी सेना ने क्योटो जापान के आकाश मे रोशनी के गोलो को आकाश मे देखा था। १५५६ मे नुरेमबर्ग जर्मनी मे आकाश मे किसी युद्ध के जैसे बहुत सारे विचित्र पिंडो को देखा था।
हाल की मे स.रा. अमरीका की वायू सेना ने उड़नतश्तरीयो के देखे जाने की घटनाओ की जांच करवायी थी। १९५२ मे ब्लू बूक प्रोजेक्ट के अंतर्गत १२,६१८ घटनाओ की जांच की गयी। इस जांच के निष्कर्षो के अनुसार उड़नतश्तरीयो को देखे जाने की अधिकतर घटनाये प्राकृतिक घटना, साधारण वायुयान या अफवाहें थी। फिर भी ६ प्रतिशत घटनाये ऐसी थी जिन्हे समझ पाना कठिन था। लेकिन कन्डोन रिपोर्ट के निष्कर्षो के अनुसार ऐसे किसी अध्यन का कोई मूल्य ना होने से १९६९ मे प्रोजेक्ट ब्लू बुक को बंद कर दिया गया। यह अमरीकी वायू सेना का उड़नतश्तरीयो के अध्यन का अंतिम ज्ञात शोध अभियान था।
२००७ मे फ्रांस की सरकार ने उडनतश्तरीयो की जांच की एक बड़ी फाईल साधारण जनता के लिये उपलब्ध करायी। इस रिपोर्ट को फ्रांस के राष्ट्रिय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र ने इंटरनेट पर उपलब्ध करा दिया है। इसके अनुसार पिछले पचास वर्षो मे १६०० उड़नतश्तरीया देखी गयी है. १००,०० पृष्ठ के चश्मदीद गवाहो के बयान, चित्र और ध्वनी टेप लिये गये है। फ्रांस सरकार के अनुसार ९ प्रतिशत घटनाओ को समझा जा सका है, ३३ प्रतिशत के पिछे संभावित कारण हो सकते है लेकिन बाकी घटनाओ के लीये कोई व्याख्या नही है।
इन घटनाओ की स्वतंत्र रूप से जांच संभव नही है। लेकिन तथ्यात्मक रूप से सावधानीपूर्वक अध्यन से अधिकतर उड़नतश्तरी की घटनाओ को निम्नलिखित कारणो मे से किसी एक के कारण माना जा सकता है:
१. शुक्र ग्रह: जो चन्द्रमा के बाद रात्री आकाश मे सबसे चमकदार पिंड है। पृथ्वी से अपनी विशाल दूरी के कारण यह ग्रह कार चालाक को उनका पिछा करता प्रतित होता है, जिससे ऐसा लगता है कि कोई यान आपके पिछे लगा हुआ है। यह कुछ उसी तरह है जिस तरह कारचालको चन्द्रमा उनका पिछा करते हुये प्रतीत होता है। हम दूरी को अपने आसपास की वस्तु के संदर्भ मे मापते है। शुक्र और चन्द्रमा आकाश मे काफी दूरी पर है और आकाश मे उनके संदर्भ के लिये कुछ नही है और वे हमारे आसपास की वस्तुओ के संदर्भ मे नही चलते है और हमे उनके हमारे पीछा करने का दृष्टीभ्रम होता है।
२. दलदली गैस : दलदली क्षेत्र मे तापमान के परिवर्तन होने पर दलदल से उत्सर्जित गैस जमीन से कुछ उपर तैरती रहती है और यह गैस थोड़ी चमकदार भी होती है। गैस के छोटे टुकड़े बड़े टुकड़ो से टूटकर अलग होते है और ऐसा भ्रम होता है कि छोटे यान बड़े मातृ यान से अलग होकर जा रहे है।
३. उल्का : कुछ ही क्षणो मे रात्री आकाश के पार प्रकाश की चमकदार रेखाओ के रूप मे उल्का किसी प्राणी चालित यान का भ्रम उत्पन्न करती है। ये टूट भी जाती है जिससे भी ऐसा भ्रम होता है कि छोटे यान बड़े मातृ यान से अलग होकर जा रहे है।
सेन्टीलीनीयल बादल कभी कभी उड़नतश्तरी जैसे दिखते है।

४. वातावरण की प्राकृतिक घटनाये : तड़ित युक्त तुफान और असाधारण वातावरण की घटनाये भी कभी कभी आकाश को असामान्य विचित्र रूप से प्रकाशित कर देती है जिनसे भी उड़नतश्तरीयो का भ्रम होता है। सेन्टीलीनीयल बादल भी उड़नतश्तरीयो के जैसे प्रतित होते है।
बीसवीं और इक्कीसवी सदी मे निम्नलिखित कारक भी उड़नतश्तरीयो का भ्रम उत्पन्न कर सकते है;
१. राडार प्रतिध्वनी: राडार तरंगे पर्वतो से टकराकर प्रतिध्वनी उत्पन्न कर सकती है जिन्हे राडार निरिक्षक पकड़ सकता है। यह तरंगें जीगजैग करते हुये और अत्यधिक गति से राडार के परदे पर देखी जा सकती है क्योंकि ये प्रतिध्वनी है।
२.मौसम और शोध के गुब्बारे : एक विवादित सैन्य दावे के अनुसार १९४७ की प्रसिद्ध रोसवेल न्युमेक्सीको की उड़नतश्तरी दूर्घटना एक मौसम के गुब्बारे की दूर्घटना थी। यह गुब्बारा एक गोपनिय प्रोझेक्ट मोगुल का गुब्बारा था जो आकाश मे परमाणु युद्ध की परिस्थितियों मे विकिरण को मापने का प्रयोग कर रहा था।
३. वायुयान : व्यावसायिक और सैन्य वायुयान भी कभी कभी उड़न तश्तरी मान लिये जाते है। यह प्रायोगिक सैन्य वायुयानो जैसे स्टील्थ बमवर्षक यानो के मामलो मे ज्यादा होता है। अमरीकी वायूसेना ने अपने गोपनीय प्रोजेक्टो को पर्दे मे रखने के लिये उड़न तश्तरी देखे जाने की कहानियो को बढा़वा भी दिया था।
४. जानबुझकर फैलायी गयी अपवाह :
जार्ज एडामस्की द्वारा दिया गया उड़नतश्तरी का चित्र जो वास्तव मे मुर्गीयो को दाना देने वाली मशीन का है।
उड़नतश्तरीयो के कुछ प्रसिद्ध चित्र अपवाह है। एक प्रसिद्ध उड़नतश्तरी का चित्र जिसमे खिड़कीया और लैण्ड करने के पैर दिखायी दे रहे है एक मुर्गी को दाना देने वाली मशीन का था।
कम से कम ९५ प्रतिशत उड़नतश्तरीयो की घटनाओ को उपर दिये गये कारणो मे से किसी एक के कारण रद्द किया जा सकता है। लेकिन कुछ प्रतिशत घटनाओ की कोई संतोषजनक व्याख्या नही है। उड़नतश्तरीयो की विश्वासपात्र घटनाओ के लिये आवश्यक है :
अ) किसी स्वतंत्र विश्वासपात्र चश्मदीद गवाह द्वारा एकाधिक बार देखा जाना
ब)एकाधिक श्रोतो के प्रमाण जैसे आंखो और राडार द्वारा उडन तश्तरी की देखा जाना।
ऐसी रिपोर्टो को रद्द करना कठीन होता है क्योंकि इनमे कई स्वतंत्र जांच शामिल होती है। उदाहरण के लिये १९८६ मे अलास्का पर जापान एअरलाईन्स की उड़ान JAL १६२८ द्वारा उड़नतश्तरी का देखा जाना है जिसकी जांच FAA ने की थी। इस उड़नतश्तरी को इस उड़ान के यात्रीयो के अतिरिक्त जमीन के राडार से भी देखा गया था। इसीतरह १९८९-९० मे नाटो के राडारो और जेट इन्टरसेप्टरो द्वारा बेल्जीयम के उपर काले त्रिभूजो को देखा गया था। सी आई ए के दस्तावेजो के अनुसार १९७६ मे इरान के तेहरान के उपर उड़नतश्तरी को देखा गया था जिसमे एक जेट इन्टरसेप्टर एफ ४ के उपकरण खराब हो गये थे।
वैज्ञानिको के लिये सबसे निराशाजनक बात यह है कि उड़नतश्तरियो को देखे जाने की हजारो घटनाओ के बावजूद किसी भी घटना ने एक भी ऐसा सबूत नही छोड़ा है जिसकी किसी प्रयोगशाला मे जांच की जा सके। कोई परग्रही डी एन ए, कोई परग्रही कम्प्युटर चिप या किसी उड़नतश्तरी के उतरने का भौतिक प्रमाण आज तक प्राप्त नही हुआ है।

चश्मदीद गवाहों के बयानो पर आधारित उड़नतश्तरीयों के गुण
यह मानते हुये कि उड़नतश्तरीयां भ्रम ना होकर वास्तविक यान है; हम कुछ ऐसे प्रशन कर सकते है जिससे यह पता चले कि यह किस तरह के यान है। उड़नतश्तरीयो के चश्मदीद गवाहो के बयानो के आधार पर विज्ञानियों ने इनके निम्नलिखित गुण नोट कीये है:
अ) वे हवा मे जीगजैग यात्रा करती है।
ब) वे कार के इंजन को बंद करदेती है और यात्रा के मार्ग मे विद्युत उर्जा को प्रभावित करती है।
क) वे हवा मे निशब्द तैरती है।
इनमे से कोई भी गुण पृथ्वी पर विकसीत किसी भी राकेट से नही मिलता है। उदाहरण के लिये सभी ज्ञात राकेट न्युटन के गति के  तीसरे नियम(हर क्रिया की तुल्य किंतु विपरित प्रतिक्रिया होती है) पर निर्भर है; लेकिन किसी भी उड़नतश्तरी की घटना मे प्रणोदन प्रणाली का वर्णन नही है। परग्रही उड़नतश्तरी को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर जाने के लिये प्रणोदन प्रणाली का होना अत्यावश्यक है। हमारे सभी अंतरिक्ष यानो मे प्रणोदन प्रणाली होती है।
उडनतश्तरीयो द्वारा वायू मे जीगजैग करते हुये उड़ान से उत्पन्न गुरुत्वबल जो पृथ्वी के गुरुत्व से सैकड़ो गुणा ज्यादा होगा, यह पृथ्वी के किसी भी प्राणी को पापड़ के जैसा चपटा कर देने के लिये काफी है।
क्या उड़नतश्तरीयो के ऐसे गुणो की आधुनिक विज्ञान द्वारा व्याख्या की जा सकती है ?
स्वचालित उड़नतश्तरियां या अर्धमशीनी चालक
हालीवुड की फिल्मे जैसे “अर्थ वर्सेस द फ्लाईंग सासर” यह मानती है कि उड़नतश्तरीया परग्रही प्राणियो द्वारा चालित होती है। लेकिन यह संभव है कि उड़नतश्तरीयां स्वचालित हो या इसके चालक अर्धमशीनी हो। स्वचालित यान या अर्धमशीनी चालक जीगजैग उड़ान से उत्पन्न गुरुत्व बल को झेल सकता है जो कि किसी प्राणी को कुचलने मे सक्षम है।
एक यान जो किसी कार के इंजन को बंद कर सकता है और वायु मे शांति से गति कर सकता है, चुंबकिय बल से चालित होना चाहिये। लेकिन चुंबकिय प्रणोदन के साथ समस्या यह है कि वह हमेशा दो ध्रुवो के साथ आता है, एक उत्तर ध्रुव और एक दक्षिण ध्रुव। कोई भी द्विध्रुवी चुंबक पृथ्वी पर उपर उड़ने की बजाये कम्पास की सुई के जैसे घुमते रह जायेगा क्योंकि पृथ्वी स्वंय एक चुंबक है। दक्षिणी ध्रुव एक दिशा मे गति करेगा जबकि उत्तरी ध्रुव विपरित दिशा मे, इससे चुंबक गोल घूमते रहेगा और कहीं नही जा पायेगा।
एकध्रुविय चुंबक
इस समस्या का समाधान एकध्रुवीय चुंबक का प्रयोग है, अर्थात ऐसा चुंबक जिसका एक ही ध्रुव हो, उत्तर ध्रुव या दक्षिण ध्रुव। सामान्यतः किसी चुंबक को आधे से तोड़ने पर दो एकध्रुव चुंबक नही बनते है, उसकी बजाय दोनो टूकड़े अपने अपने उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवो के साथ द्विध्रुवीय चुंबक बन जाते है। इसतरह आप किसी चुंबक को तोड़ते जाये, हर टूकड़ा अपने अपने उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों द्विध्रुवीय चुंबक ही रहेगा। ऐसा परमाण्विक स्तर तक पहुंचते तक जारी रहेगा जहां परमाणु स्वयं द्विध्रुवीय है।
विज्ञानियो के सामने समस्या है कि एकध्रुवीय चुंबक प्रयोगशाला मे कभी नही देखा गया है। भौतिकी विज्ञानियो ने अपने उपकरणो से एकध्रुवीय चुंबक के चित्र लेने के प्रयास किये है लेकिन असफल रहे है।(१९८२ मे स्टैनफोर्ड विश्व विद्यालय मे ली गयी एक अत्यंत विवादास्पद तस्वीर इसका अपवाद है।)
एकध्रुवी चुंबक को प्रयोगशाला मे नही देखा गया है लेकिन भौतिकी विज्ञानियो का मानना है कि ब्रह्माण्ड के जन्म के तुरंत पश्चात एकध्रुविय चुंबक की बहुतायत रही होगी। यह धारणा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के महाविस्फोट(Big Bang) आधारित आधुनिक सिद्धांतो पर आधारित है, एकध्रुवीय चुंबक  का घनत्व ब्रह्माण्ड के विस्तार के साथ कम होता गया है, और आज वे दूर्लभ हो गये है। तथ्य यह है कि एकध्रुवीय चुंबक का दूर्लभ होने ने ही विज्ञानियो को विस्तृत होते ब्रह्माण्ड के सिद्धांत के प्रतिपादन के लिये प्रोत्साहित किया है। इसलिये सैधांतिक रूप से एक ध्रुवीय चुंबक का आस्तित्व भौतिकी मे पहले से ही संभव है।
यह माना जा सकता है अंतरिक्ष यात्रा मे सक्षम परग्रही प्रजाति महाविस्फोट(Big Bang) के पश्चात शेष मौलिक एकध्रुवीय चुंबको को अंतरिक्ष मे एक बड़े चुंबकिय जाल से समेट कर अपने प्रयोग मे ला सकती है। जैसे ही उनके पास पर्याप्त एकध्रुव चुंबक जमा हो गये वे अंतरिक्ष मे फैली चुंबकीय रेखाओ पर सवार होकर बिना किसी प्रणोदन के यात्रा कर सकते है। एकध्रुवीय चुंबक भौतिकविज्ञानियो के आकर्षण का केन्द्र है और एक ध्रुवीय चुंबक आधारित यान विज्ञान की अभी तक ज्ञात अवधारणा के अनुरूप है।
नैनो टेक्नालाजी(नैनो अंतरिक्षयान)
ऐसी कोई भी परग्रही सभ्यता जो ब्रह्मांड मे कहीं भी अंतरिक्षयान भेज सकती है , नैनो टेक्नालाजी का ज्ञान अवश्य रखती होगी। इसका अर्थ यह है कि उनके अंतरिक्षयानो का विशालकाय होना आवश्यक नही है। नैनो अंतरिक्षयान लाखो की संख्या मे अंतरिक्ष मे ग्रहो पर जीवन की थाह लेने के लिये भेजे जा सकते है। ग्रहो के चन्द्रमा ऐसे नैनो अंतरिक्ष यानो के लिये आधारकेन्द्र हो सकते है। यदि ऐसा है तो भूतकाल मे वर्ग ३ की सभ्यता हमारे चन्द्रमा की यात्रा कर चूकी है। यह संभव है कि ये यान स्वचालित और रोबोटिक होंगे और चन्द्रमा पर आज भी होंगे। मानव सभ्यता को पूरे चन्द्रमा पर ऐसे नैनो अंतरिक्ष यानो के अवशेष या प्रमाण की खोज मे सक्षम होने मे अभी एक शताब्दी और लगेगी।
यदि हमारे चन्द्रमा की परग्रही सभ्यता यात्रा कर चूके है या वह उनके नैनो अंतरिक्ष यानो का आधारकेन्द्र रहा है तो कोई आश्चर्य नही कि उड़नतश्तरीयां विशालकाय नही होती है। कुछ विज्ञानी उड़नतश्तरीयो को इस लिये भी अफवाह मानते है क्योंकि वे किसी भी विशालकाय प्रणोदन प्रणाली के अभिकल्पन(Design) के अनुरूप नही है। उनके अनुसार ब्रह्मांडीय अंतरिक्ष यात्रा के लिये विशालकाय प्रणोदन प्रणाली आवश्यक है जिसमे रैमजेट संलयन इंजीन, विशालकाय लेजरचालित पाल तथा नाभिकिय पल्स इंजिन है जोकि कई किलोमीटर चौड़े हो सकते है। उड़नतश्तरीयां जेट विमान के जैसे छोटी नही हो सकती है। लेकिन यदि चन्द्रमा पर उनका आधार केन्द्र है तो वह छोटी हो सकती है और वे चन्द्रमा पर अपने आधारकेन्द्र से इंधन ले सकती है। उड़न तश्तरीयो को देखे जाने की घटनाये चन्द्रमा के आधारकेन्द्र से आ रहे स्वचालित प्राणी रहित  यानो की हो सकती है।
ब्रह्माण्ड की विशालकाय दूरी
उड़नतश्तरीयों के विरोध मे सबसे बड़ा तर्क है कि ब्रह्मांड इतना विशाल है कि इसकी दूरीयों को पार कर उड़नतश्तरीयों का पृथ्वी तक आना लगभग असंभव है। पृथ्वी तक पहुंचने के लिए प्रकाश गति से भी तेज़ चलने वाला यान चाहिये जो कि मानव द्वारा ज्ञात भौतिकी के नियमों के विरूद्ध है। पृथ्वी के निकट का तारा भी ४ प्रकाशवर्ष दूर है, प्रकाशगति से चलने वाले यान को भी वहां से पृथ्वी तक आने मे ४ वर्ष लगेंगे। कुल यात्रा के कम से कम आठ वर्षो की यात्रा के लिए सक्षम यान को विशालकाय होना चाहिये। अब तक उड़नतश्तरीयो की जितनी भी रिपोर्ट मिली है उसमे उड़नतश्तरीयां विशालकाय नही हैं।
परग्रही जीवन और भविष्य
सेटी प्रोजेक्ट मे आयी तेजी और तेजी से खोजे जा रहे सौर बाह्य ग्रहो से ऐसा प्रतित होता है कि यदि हमारे समीप कहीं बुद्धिमान जीवन है तो एक शताब्दि के अंदर उनसे संपर्क स्थापित हो सकता है। कुछ प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है जैसे:
यदि परग्रही सभ्यता का अस्तित्व है, क्या हम कभी उन तक पहुंच पायेंगे ?
जब सूर्य की मृत्यु होगी हमारा भविष्य क्या होगा ?
क्या हम किसी दूसरे तारे तक पहुंच मानव सभ्यता को बचा पायेंगे ?
क्या हमारा भविष्य इन तारो मे ही निहीत है ?
इन सभी प्रश्नो का उत्तर भविष्य के गर्भ मे है।

Global Positioning System

Since  ages  man  has  invented  various  instruments  to  assist  him  in  navigation  on  earth.  Magnetic compass  is  one  of  the  oldest  navigational  instrument  man  has  been  using  for  many  centuries  for direction  identification  on  earth’s  surface.  
Global  Positioning  System  (GPS)  based  devices  are  the latest  navigation  assistance  devices  used  these  days.  GPS  devices  provide  accurate  real  time  location and  much  more  information  to  its  user  for  easier  and  comfortable  navigation  even  through  his  or  her local  streets.  A  commonly  available  GPS  device  is  shown  in  the  figure.  When  fitted  in  a  car,  it  shows speed of the car, time, longitude coordinates and map of near-by area. 

What  is Global  Positioning  System  (GPS)?
Global  positioning  system  GPS  is  a  method  of  identifying  location  or  position  of  any  point  (or  a person)  on  earth  using  a  system  of  24  satellites,  which  are  continuously  orbiting,  observing, monitoring  and  mapping  the  earth  surface.  Every  such  satellite  revolves  around  earth  twice  a  day  at  a distance  of  about  20000  km  from  it.  The  given  figure  shows  sketch  view  of  24  GPS  satellites  orbiting around  the  earth.   The  orbits  of  these  satellites  are  so  aligned  that  at  least  four  of  them  always  keep  looking  any  given point  on  earth  surface.  This  is  minimum  necessary  requirement  for  correct  and  accurate  location identification  through  this  system.  In  the  given  figure,  the  given  location  at  the  instant  is  visible  to  12 satellites. 

Working  principle  of  a  GPS  device 
For  using  the  GPS  system  of  satellites,  a  person  needs  a  GPS  device  fitted  with  a  transmitter/receiver for  sending/receiving  signals  (electromagnetic  radio  waves)  so  that  it  can  link  up  with  GPS  satellites in real time.   The  unique  location  (or  longitude  coordinates)  of  a  GPS  user  is  determined  by  measuring  its  distance from  at  least  three  GPS  satellites.  Based  on  these  distance  measurements,  the  location  calculations  are done  by  the  microprocessor  (computing  device) fitted in the  GPS  device. For  measuring  distance  of  three  GPS  satellites  from  the  GPS  device  user,  the  time  taken  by  a  radio signal to travel from  device  to satellites and  back are  recorded by  the  GPS  device. 
For, example,  if a  radio  signal takes 0.140 seconds  to travel back  from a satellite-1 to its GPS  user.  

Following  the  above  method, let D1, D2  and D3  be  the distances of  three  satellites from a  GPS  device user.  From  this  information,  the  identification  of  unique  location  of  the  GPS  device  user  is  done  as follows: 

(1)  If  user  is  at  a  distance  “D1”  from  satellite-1.  Then  user’s  location  can  be  anywhere  on  a circumference of circle of radius “D1” from satellite-1 as shown in fig below. 
(2)  If  user  is  at  a  distance  “D2”  from  satellite-2.  Then  user’s  location  can  be  either  at  intersecting points  X  or  Y  of  circumferences  of  circles  of  radius  D1  and  D2  from  satellite-1  and  2 respectively as shown in figure below. 
(3)  If  user  is  at  a  distance  “D3”  from  satellite-3.  Then  user’s  location  will  be  at  the  intersecting point  of circumferences  of  circles  of  radius  D1,  D2  and  D3  from  satellite-1,  2  and  3  respectively  as shown in fig(c). i.e. here user is at point Y.
This  way,  minimum  three  satellites  together  provide  the  exact  location  (longitude  coordinates)  of  the GPS  device  user  on his  display  board.   
If  a  person  is  at  some  height  on  earth  surface,  then  using  distance  information  from  minimum  4-GPS satellites even altitude  of  the  user can also be measured. 

It  may  be  noted  that  since  all  24-GPS  satellites  orbit  in  predefined  orbits,  therefore  their  locations  are precisely  predetermined.  It  is  these  known locations  of  3  or  4  -GPS  satellites  (3  or  4  sets  of  longitude coordinates)  and  their  distances  to  GPS  device  that  assist  a  GPS  user  (i.e.  its  computing  device)  in locating  its own longitude  coordinates. 

Applications  of GPS   Global positioning system  has many  day-to-day  applications:   
It helps in navigation on water, air and land.   
It assists in map designing of a  location.   
It helps  automatic  vehicle  movements (without  man)   
One can measure  speed of moving object using this technology.   
One can locate  change  in  position of  glaciers, mountains heights.   
It assists in keeping standard time  world over.   
It  assists  in  tracking  animals  and  birds  and  studying  their  movements  by attaching  GPS devices to their bodies.     
It assists in  airplane  traffic  movement.  
It assists visually impaired in location identification.

Now-a-days,  various  devices  like  mobile  phones,  i-pad  etc.  come  equipped  with  pre-loaded geographical  maps  and  GPS  software  which  identifies  the  location  of  these  devices  using  GPS system. GPS is a free service available to anyone in the world with a GPS device.

Source:- CBSE ONLINE STUDY MATERIAL

Friday, 15 January 2016

Airborne Wind Turbine: To Bring Renewable Energy and WiFi


An airborne wind turbine is a design concept for a wind turbine with a rotor supported in the air without a tower,[ thus benefiting from more mechanical and aerodynamic options, the higher velocity and persistence of wind at high altitudes, while avoiding the expense of tower construction, or the need for slip rings or yaw mechanism. An electrical generator may be on the ground or airborne.
In an effort to harness strong high-altitude winds, the company Altaeros Energies has developed a floating wind turbine that’s a cross between a traditional windmill and a blimp. After some successful tests, the Altaeros team is confident that this new levitating wind turbine will be a viable clean energy option for remote villages and military sites.


The design of the Altaeros’ Airborne Wind Turbine is pretty simple. An inflatable, helium-filled shell lifts it off the ground to high altitudes, where winds are much stronger than at ground level. The airborne turbines are held steady by strong tethers, which send electricity generated by the turbine back down to the ground.
“For decades, wind turbines have required cranes and huge towers to lift a few hundred feet off the ground where winds can be slow and gusty,” said Airborne Wind Turbine inventor Ben Glass in a release. At higher altitudes, not only are winds more than five times stronger, but they’re also more consistent.

Altaeros Energies was founded in 2010 by MIT and Harvard alums. Earlier this year, the team completed testing of a 35-foot scale prototype of the Airborne Wind Turbine in Limestone, Maine. There, the floating turbine climbed to 350 feet off the ground, generated power, and landed in an automated cycle. According to a press release, the prototype produced more than twice as much power at high altitude than generated at conventional tower height.
There are of course other benefits to having a wind turbine that floats high above the ground. For one, it produces very little noise, and it requires little maintenance (and what maintenance it does require can be done at ground level). Additionally, the inflatable shroud covering the wind turbine blocks the spinning blades from being visible to nearby communities.


Thursday, 7 January 2016

Coronary MegaVac Mechanical Thrombectomy System

How it Works

See this video at.

Occlude

Position MegaVac proximal to target clot and deploy. The catheter then occludes the vessel and arrests blood flow. Stoppage of blood flow prevents clot fragments from traveling downstream.

Aspirate

Once deployed, clot is aspirated through the catheter using a VacLok syringe. Since blood flow has been arrested, the aspiration efficiency is much higher than can be achieved with existing technologies.

Retract

If there is residual clot after the initial aspiration, the ThromboWire is inserted through the MegaVac, through (distal to) clot, and deployed. While aspirating with the MegaVac, the ThromboWire is simultaneously retracted, macerating clot and pulling it into and out of the catheter.

Tuesday, 5 January 2016

Electric eel - How it generate a high voltage.



The electric eel (Electrophorus electricus) is an electric fish, and the only species in that genus. Despite the name, it is not an eel, but rather a knifefish.


The electric eel has three pairs of abdominal organs that produce electricity: the main organ, the Hunter's organ, and the Sach's organ. These organs make up four-fifths of its body, and are what gives the electric eel the ability to generate two types of electric organ discharges: low voltage and high voltage. These organs are made of electrocytes, lined up so a current of ions can flow through them and stacked so each one adds to a potential difference. When the eel locates its prey, the brain sends a signal through the nervous system to the electrocytes. This opens the ion channels, allowing sodium to flow through, reversing the polarity momentarily. By causing a sudden difference in electric potential, it generates an electric current in a manner similar to a battery, in which stacked plates each produce an electric potential difference. In the electric eel, some 5,000 to 6,000 stacked electroplaques are capable of producing a shock at up to 860 volts and 1 ampere of current (600 watts) for a duration of two milliseconds. It would be extremely unlikely for such a shock to be deadly for an adult human, due to the very short duration of the discharge. Atrial fibrillation requires that roughly 700 mA be delivered across the heart muscle for 30 ms or more, far longer than the eel is able to produce. Still, this level of current is reportedly enough to produce a brief and painful numbing shock likened to a stun gun discharge, which due to the voltage can be felt for some distance from the fish; this is a common risk for aquarium caretakers and biologists attempting to handle or examine electric eels.
The Sach's organ is associated with electrolocation. Inside the organ are many muscle-like cells, called electrocytes. Each cell can only produce 0.15 V, though the organ can transmit a signal of nearly 10 V overall in amplitude at around 25 Hz in frequency. These signals are emitted by the main organ; the Hunter's organ can emit signals at rates of several hundred hertz.
The electric eel is unique among the Gymnotiformes in having large electric organs capable of producing potentially lethal discharges that allow them to stun prey. Larger voltages have been reported, but the typical output is sufficient to stun or deter virtually any animal. Juveniles produce smaller voltages (about 100 V). They are capable of varying the intensity of the electric discharge, using lower discharges for hunting and higher intensities for stunning prey or defending themselves. They can also concentrate the discharge by curling up and making contact at two points along its body. When agitated, they are capable of producing these intermittent electric shocks over a period of at least an hour without tiring.
The electric eel also possesses high frequency-sensitive tuberous receptors, which are distributed in patches over its body. This feature is apparently useful for hunting other Gymnotiformes.

Source:- Wikipedia

Monday, 4 January 2016

सौरमंडल के महत्त्वपूर्ण तथ्य

सौरमंडल के महत्त्वपूर्ण तथ्य
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सबसे बड़ा ग्रह --------------------बृहस्पति (Jupiter)
सबसे छोटा ग्रह -------------------बुध (Mercury)
पृथ्वी का उपग्रह -------------------चन्द्रमा (Moon)
सूर्य से सबसे निकट ग्रह ----------बुध (Mercury)
सूर्य से सबसे दूर स्थित ग्रह ------वरूण (Neptune)
पृथ्वी के सबसे निकट ग्रह ---------शुक्र (Venus)
सबसे अधिक चमकीला ग्रह ------- शुक्र (Venus)
सबसे अधिक चमकीला तारा ---- साइरस (Dog Star)
सबसे अधिक उपग्रहों वाला ग्रह ----बृहस्पति व शनि
सबसे अधिक ठण्डा ग्रह ----------वरूण (Neptune)
सबसे अधिक भारी ग्रह ---------- बृहस्पति (Jupiter)
रात्री में लाल दिखाई देने वाला ग्रह ----- मंगल (Mars)
सौरमंडल का सबसे बड़ा उपग्रह ---    गैनीमेड (Gannymede)
सौरमंडल का सबसे छोटा उपग्रह- डी मोस (Deimos)
नीला ग्रह ------------------------------ पृथ्वी (Earth)
भोर का तारा ------------------------शुक्र (Venus)
साँझ का तारा ------------------------ शुक्र (Venus)
पृथ्वी की बहन ------------------------ शुक्र (Venus)
सौन्दर्य का देवता ---------------------शुक्र (Venus)
हरा ग्रह ----------------------------- वरूण (Neptune)
विशाल लाल धब्बे वाला ग्रह ------ बृहस्पति (Jupiter)